
प्रखर राष्ट्रवाद न्यूज छत्तीसगढ़/कोरबा –
* वर्तमान समय के ‘फूल और काटें’ दोनों हैं ‘माली’ उपन्यास में – -डॉ. चन्द्रशेखर सिंह
वह उपन्यास जिसमें जीवन की बगिया है, फूल हैं तरह-तरह के, वृक्ष तने हुए हैं वहीं लताओं के समूह घने हुए हैं । हरियाली की मादकता पत्तियों में बिखरी हुई है । पीले-पीले पुराने पत्ते कुछ-कुछ बिखरे हुए हैं । माली के अपने दर्द हैं । व्यवस्था को लेकर कसमसाहट है । छोटी-छोटी खुशियों की बूंदे हैं जो हरीतिमा को बढ़ा दे । उपन्यासकार जीवन की समग्रता को गुलदस्ते की भांति करीने से सजाता है । जिस गुलदस्ते में मोहक पुष्प की खुशबू होती है और हरी-हरी पत्तियों के कोमल-कोमल एहसास भी खास होते हैं । तो उस कोमल एहसासों को समेटने में लगने वाला श्रम सहज नहीं होता । इन तथ्यों को विविध कथ्यों से कसकर लेखनी की छैनी से उपन्यासकार गढ़ता है- जीवन को समझता है और समझाता भी है। इस जीवन में कार्य-शैली की बनावट ही नहीं, बुनावट भी दिखती है । जो हमें संकेत करता है उपन्यास के गढ़ने के पीछे की वजह और वजह भी होती है हमारी चेतना को चैतन्य करने की कि किन-किन विडम्बनाओं ने घेरा है कसकर, जहां फंसे हुए हैं धंसकर ! इसमें राहत की वे लकीरें भी खींची जाती है जिसमें आहत होने की आहट गुम होते जाती है धीरे-धीरे धीरे… !
सुलझे हुए कथाकार डॉ.दिनेश श्रीवास इन्हीं जाद्दोजेहद का एक हलफ़नामा तैयार करते हैं जो जनता के समक्ष ‘माली’ उपन्यास के रूप में उपस्थित होता है । यह उपन्यास समाज के यथार्थ को व्यवस्थित दिशा में पहुंचाने हेतु एक बेहतर उद्दम है । तात्विक विवेचन के अनुक्रम में जब ‘माली’ उपन्यास का मूल्यांकन करते हैं तो जीवन के उन तथ्यों से भी परिचय होता है जो अनछुए से होते हैं, अनकहे से होते हैं, जिसे डॉ. दिनेश श्रीवास ने छूने का प्रयास किया है , कहने का प्रयास किया है । उपन्यास के तत्वों के आधार पर इसे क्रमबद्ध अनुक्रम देते हैं-
1) कथानक (कथावस्तु)-
‘माली’ शीर्षक से रची गई कथा का प्रारंभ ही गुलाब, गेंदे और फूलों के गुच्छ से होता हुआ, शीर्षक की सार्थकता का संकेत करता है, भले ही वह शीर्षक प्रतीकात्मक हो । डॉ. दिनेश लिखते हैं-
“….दाएं तरफ फूलों का गुच्छ रखा है जिसमें गुलाब और गेंदे के फूल गुथे हैं, पीछे कपड़े का जो पटल बनाया गया है वह किसी सिल्क साड़ी का है, जिस पर गुलाब की कलियां चिपकाई गई हैं ।”
जयेश के अपने विचार हैं,
मेघना के अपने ।
वश नहीं दिल पर किसी का,
खिल रहे हैं सपने ।
प्रेम (स्वप्न) की मधुर व्यंजना से कथा का प्रारंभ करके ‘प्रेम की व्याख्या’ से समापन, रिदम का अनुक्रम लगता है । प्रशासनिक अधिकारियों के जीवन के ताने-बाने इस उपन्यास में मायने पाते हैं । एक तरफ प्रशासन व पैसा, प्रभुत्व व शान है, वहीं दूसरी तरफ मानवीयता और साधुता भी है । विजय प्रकाश (कलेक्टर) रत्नेश शाह (कलेक्टर) और जयेश (डिप्टी कलेक्टर) प्रभुत्व की पहचान है, वहीं विमला और मोहन मानवीयता की अकथ कहानी हैं । पर रात के सन्नाटे में यथार्थ की कालिमा जब बेटियों को घूरती हो, अस्मिता तार-तार करती हो और यह समाज मूक सा प्रतीत हो, वातावरण ही भयावह हो जाता है । पर रामभरोसे जैसे पत्रकार अखबार में हर बार समाज के सामने हकीकत लाना भी चाहे तो उसका प्रतिफल क्या ? प्राण को गंवाना ! उपन्यासकार एक प्रश्न छोड़ता है कि इन विडम्बनाओं का सहज उन्मूलन कैसे ?
डॉ. दिनेश श्रीवास ने इस कथा में उन तथ्यों को भी बारीकी से रखने का प्रयास किया है कि ओहदेदार व्यक्तित्व, प्रशासक, राजनेता और रसूख वाले भी नकारात्मक कार्य-शैली से बौने नज़र आते हैं, वहीं समाज के वीरू जैसे छोटे-छोटे व्यक्तित्व भी समाज के प्रति संवेदनशीलता के कारण ध्यान अपनी ओर खींचते हैं ।
छात्र-संघ चुनाव की दशा भी इस कथा को आगे बढ़ती है । जीवन के अविस्मरणीय पटल पर अटल दिखने वाले प्रणय निवेदन ! प्रणय वेदना !! प्रणय स्मरण !!! की झांकती हुई तस्वीरें भी कथा की खुशबू हैं ।
‘माली’ कथा की व्यापकता में छोटे-छोटे उप-शीर्षकों की महती भूमिका है और नवीनता का स्फूरण भी । इन्हीं शीर्षकों ने पाठक के मन को गुदगुदाया और कथा में प्रवेश हेतु प्रेरित किया । कथा का सार कहें तो ‘माली’ आज का व्यवस्थित दस्तावेज है ।

2) पात्र एवं चरित्र-चित्रण-
कथाकार ने वर्तमान चरित्र को इस कथा में चित्रित किया है । पात्रों का चरित्र आज का आईना है । जयेश यदि यथार्थपरक चरित्र जीते हैं तो प्रोफेसर सोमेन वर्मा युग अनुरूप आवश्यकता है । पत्रकार दिगंबर और रमणीक के जीवन आनंद में दोस्ती के मकरंद का मधुर उद्भव है । मिस्टर बजाज को जीवन का अनुभव है । अपने बच्चे विनय को सही राह पर अडिग रहने की सलाह तथा बेहतर विकल्प क्या हो, इसकी चिंता उसे सफल अभिभावक का चरित्र देता है । आज के नवयुवक और नवयुतियों के गैर वाजिब संबंधों का काला चिट्ठा ‘सभ्यता का कचरा’ शीर्षक में चरित्र पाता है, जो विनय और कविता के संबंधों के रूप में चित्रित है । ज्योति, जया, जोसेफ, मोहनी, मेघना (निक्की), विजय, विमला, मोहन, रजनी देवी, कमल आदि अनेक पात्र हैं जो समाज के अन्य-अनेक प्रतिनिधि से लगते हैं । जिन चरित्रों को कथाकार ने बड़े मानोयोग से गढ़ा है। वीरू जैसा साइकिल दुकान वाला भी इस कथा का पात्र है, वहीं रामगोपाल जैसा होटल वाला भी जगह पा लेता है । इस कथा में पात्रों का व्यवस्थित चित्रांकन है ।
3) संवाद योजना (कथोपकथन)-
संवाद योजना जिसे कथोपकथन भी कहा जाता है अर्थात् कथा में उप-कथन । कथाकार कथा को कहते तो चलता है पर पात्रों से आपस में संवाद कराते चलने से कथा में जान आ जाती है । पात्रों में संवाद कराकर भी अपनी कथा कहते चलने की विशिष्ट शैली कथाकार को विशिष्ट बना देता है । ‘माली’ उपन्यास की संवाद योजना बड़ी सटीक बन पड़ी है ।
एक उदाहरण देखें-
डील के पूरा होने ही ज्योति विनय के केबिन में आ गई, उसने विनय को देखते ही कहा-
“सर मैंने डील फाइनल कर दी है ।”
तुम्हें कन्ग्रेट्स, तुम चिंता ना करो, मैं कल कविता को डॉक्टर खन्ना के क्लीनिक लेकर जाऊंगा ।
“क्या डॉक्टर खन्ना के यहां ? कोई और नहीं ?”
“क्यों डॉक्टर खन्ना के यहां क्या प्रॉब्लम है…? उनसे बड़ा सर्जन नहीं है शहर में…”
ज्योति ने कुछ नहीं कहा, लेकिन मन में सोचने लगी- “हां उनसे बड़ा लुटेरा भी नहीं है शहर में !” (पृष्ठ-55)
इसी तरह एक अन्य उदाहरण-
गोपाल के नंबर डायल करने पर जयेश ने फोन उठाया-
“हां, बोलिये कौन बोल रहे हैं ?…
“जी, हैलो सर ! नमस्कार मैं गोपाल बोल रहा हूं, अंशु का भाई, प्रोफेसर सोमेन ने आपका नंबर दिया था ।”
“हां, ठीक है, याद आया, कैसे हो ? बताओ कुछ काम है मुझसे ?… (पृष्ठ-111)
इस तरह लेखक अपनी कथा भी कहते जाते हैं और पात्रों से प्रसंग अनुकूल संवाद भी करवाते हैं । इससे कथा हृदयग्राही हो जाती है । लेखक ने इसका विशेष ख्याल रखा है ।
4) देशकाल व वातावरण-
देशकाल व वातावरण किसी भी कथा की संजीवनी है । इससे ही कथा का आभामंडल दमकता है । ‘माली’ उपन्यास को रचते हुए डॉ. दिनेश श्रीवास ने इसका बराबर ध्यान रखा है । इस उपन्यास में जहां गांव की गरिमा दिखती है, वहीं शहर के उठा-पटक रोजमर्रे के हिस्से से लगते हैं । गांव के लोग बरगद के पेड़ों को अपना पूर्वज मानते हुए प्रकृति से नाता जोड़ते हैं, वहीं शहरी ख्यालों में डूबा आदमी स्वार्थ की सीमा में अपने को घिरा हुआ पाता है । लेखक ने इन परिदृश्यों को व्यवस्थित करते हुए प्राकृतिक व सामाजिक वातावरण तैयार किया है, वहीं राघवगढ़, शक्तिपुर एवं कैलाशपुर जगहों का कथा में आना देश काल की पृष्ठभूमि है । लेखक ने कथा के इस अनुक्रम को श्रम से सवांरा है ।
5) भाषा-शैली
‘माली’ (उपन्यास) सरस हिन्दी में लिखी गई रचना है । सीधी और सपाट शैली इसकी पहचान है ,कहीं-कहीं काव्यात्मक शैली इसमें मिठास घोल देती है । पात्रों के अनुकूल अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का आ जाना कथा के प्रभाव की खूबसूरती है । बोलचाल की सहज शैली कथा की रोचकता के लिए आवश्यक भी है, जिसे डॉ. दिनेश श्रीवास तन्मयता से रखते हैं । इस रचना से कुछ उदाहरण लेते हैं-
1) जब आंटी जयेश सिंह से कहती है- “यस-यस, जोसेफ ने बताया था, जोसेफ का फ्रेंड है तुम , …” (पृष्ठ-19)
2) पुनीता जब कलेक्टर से कहती है- “नहीं, नहीं सर दस्तखत मैंने किये थे, सरपंच तो मैं हूं,…” (पृष्ठ-39)
लेखक ने शब्दों को इस तरह से रखा है कि भावों में जीवंतता आ जाती है । भाषा प्रसंग के अनुकूल है और शैली प्रभावपूर्ण ।
6) उद्देश्य-
‘माली’ उपन्यास के मुख पृष्ठ पर लिखा हुआ है- प्रशासन और माननीय व्यवहार के उलझाव की कथा । लेखक इन्हीं उद्देश्यों की पड़ताल करते दिखाई देते हैं । प्रशासन, पैसा और प्रभुत्व के प्रभाव में दिखता है, वहीं जन सामान्य की दिक्कतें स्वार्थ के उलझन में भेंट चढ़ती हुई दिखती है । जनप्रतिनिधि भी समस्या के समाधान नहीं बनते हैं, बल्कि वह अपने हितों के लिए ही तनते हैं । कथा के माध्यम से समाज के इन विडम्बनाओं को लेखक ने बेबाकी से रखा है । वे इस कथा में चिन्तन के कुछ प्रश्न छोड़ते हैं-
1) जिम्मेदार व्यक्तियों की रचनात्मकता कहां उलझी है ?
2) अनुकूलित वातावरण के लिए सबकी अपनी जिम्मेदारी नहीं क्या ?
3) आधुनिकता की अंधभक्ति कितना सही है ?
4) संस्कारित परंपरा ही खुशियों का आधार है !
5)स्त्री जीवन के प्रति सहजानुभूति का भाव
सार में कहें तो ‘माली’ उपन्यास नवीन बिंबो के साथ नए प्रतिमान में दिखाई देता है । इस कथा में समस्या का स्पंदन ही नहीं, समाधान का स्फूरण भी है । तात्विक विवेचन के अनुक्रम में सफल उपन्यास के रूप में संदेश बड़ा ही सटीक है । डॉ. दिनेश श्रीवास ने आधुनिक परिवेश की चहलकदमी में मानवीय मूल्यों की परख को सदैव ऊपर रखा है । तभी तो कथा के समापन में मधुर गीत गुंजते हैं-
फूलों की हिफाजत कर,
कलियों में तू ममता भर
बगिया को तू रोशन कर
तू सोच नहीं खाली
माली… माली …माली !
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